लेखक: अभय सिंह (IIT बाबा)
हर चीज़ एक भूमिका है। एक भूमिका के अंदर एक और भूमिका। एक नाटक के भीतर एक और नाटक।
हम देखते हैं, हम बोलते हैं, हम सुनते हैं। लेकिन क्या हम कभी खुद से पूछते हैं—
“कौन देख रहा है? कौन बोल रहा है? कौन सुन रहा है?”
माया—यह सिर्फ़ बाहरी दुनिया का भ्रम नहीं है, जो हमें इच्छाओं और ध्यान भटकाने वाली चीज़ों में उलझाता है। यह उस भ्रम का नाम भी है, जिसमें हम सोचते हैं कि हम समझते हैं। यह उस भ्रम का नाम है, जिसमें हम मानते हैं कि शब्दों का कोई स्थायी अर्थ होता है, जबकि हर अर्थ सिर्फ़ वही होता है, जो हम उसे देते हैं।
यह लेख माया को नकारने के बारे में नहीं है, बल्कि इसे पारदर्शी बनाने के बारे में है। यह समझने के बारे में है कि हम जिस चीज़ को गंभीरता से लेते हैं, वह भी बस एक और अभिनय का हिस्सा है—एक अनंत नाटक में एक और दृश्य।
1. भूमिका को एक भूमिका की तरह देखना
“भूमिकाओं को देखना, एक ऐसी भूमिका से, जो देख रही है—हाहा।”
एक अभिनेता को देखो जो एक नाटक में अभिनय कर रहा है। उसे पता है कि वह सिर्फ़ एक किरदार निभा रहा है। अब सोचो कि उसी नाटक में उसका किरदार भी एक और किरदार का अभिनय कर रहा है।
तो असली कौन है?
- तुम इन शब्दों को पढ़ रहे हो, पाठक की भूमिका निभा रहे हो।
- मैं इन शब्दों को लिख रहा हूँ, लेखक की भूमिका निभा रहा हूँ।
- लेकिन इन भूमिकाओं से बाहर हम कौन हैं?
क्या कभी ऐसा पल आता है जब हम अभिनय करना बंद कर देते हैं? या फिर हम हमेशा कोई न कोई भूमिका निभाते रहते हैं—यहाँ तक कि जब हम अकेले होते हैं तब भी?
उदाहरण:
तुम अपने दोस्त से मिलते हो, तो अलग तरीके से बात करते हो। अपने माता-पिता से अलग तरीके से। काम पर अलग, और घर पर अलग।
तो असली “तुम” कौन हो?
या फिर “असली तुम” भी सिर्फ़ एक और भूमिका है, जो बाकी भूमिकाओं को देख रहा है?
2. एक नाटक के भीतर दूसरा नाटक
“नाटक के भीतर एक और नाटक।”
हम सिर्फ़ एक वास्तविकता में नहीं जी रहे, हम कई स्तरों की वास्तविकताओं में रहते हैं।
एक फ़िल्म में एक अभिनेता एक किरदार निभा रहा है। लेकिन वही अभिनेता असल ज़िंदगी में भी एक व्यक्ति है। और उस व्यक्ति की असल ज़िंदगी भी समाज, परिवार और खुद की धारणाओं से बनाई गई है।
तो असली कौन है?
- वह जो हमें दिखता है?
- वह जो हमें नहीं दिखता?
- या वह जो किसी भी परिभाषा से परे है?
उदाहरण:
एक कॉमेडियन मंच पर लोगों को हँसा रहा है। लेकिन मंच के पीछे, वह गहरे दुख में है।
तो असली कौन है? हँसी या खामोशी?
या फिर दोनों ही एक ही भ्रम का हिस्सा हैं?
3. अर्थ का भ्रम: शब्दों का कोई स्थायी सच नहीं होता
“अर्थ, देखने वाले के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।”
जो कुछ भी हम समझते हैं, वह हमारी अपनी सोच और अनुभवों से गुज़रकर आता है।
- जो वाक्य एक इंसान के लिए गहरा है, वह दूसरे के लिए बकवास हो सकता है।
- जो किताब किसी एक का जीवन बदल देती है, वह किसी और के लिए उबाऊ होती है।
- एक ही शब्द किसी को खुशी दे सकता है और किसी को दुख, यह इस पर निर्भर करता है कि वह शब्द कौन सुन रहा है।
उदाहरण:
अगर मैं कहूँ “तुम आज़ाद हो,” तो इसका क्या मतलब है?
- एक कैदी के लिए इसका मतलब है जेल से बाहर आना।
- एक छात्र के लिए इसका मतलब है छुट्टियाँ।
- एक खोए हुए व्यक्ति के लिए इसका मतलब है डर।
शब्द वही है। लेकिन अर्थ बदलता रहता है।
तो अगर अर्थ हमेशा बदलता रहता है, तो हम किसी भी चीज़ को निश्चित रूप से जानने का दावा कैसे कर सकते हैं?
4. शब्दों और अर्थ का टकराव: जब भाव महत्वपूर्ण हो जाता है
“जो कहा गया, उसमें कोई मायने नहीं। जो सुना गया, उसमें कोई मायने नहीं। फिर भी कुछ बह रहा है।”
क्या कभी तुम्हारे साथ ऐसा हुआ है कि शब्दों से ज़्यादा एहसास ने बात की हो?
जहाँ अर्थ शब्दों में नहीं था, बल्कि उनके बीच की ख़ामोशी में था?
क्योंकि असली संवाद शब्दों से नहीं होता—यह प्रवाह से होता है। यह अनुभव से होता है। यह उपस्थिति से होता है।
उदाहरण:
एक कवि लिखता है: “हवा समंदर से राज़ कहती है।”
वैज्ञानिक रूप से, इसका कोई मतलब नहीं बनता। हवा बातें नहीं कर सकती। समंदर सुन नहीं सकता। लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि वाक्य बेकार है?
या फिर अर्थ तर्क से परे भी हो सकता है?
5. संदेह शब्दों में होता है, अनुभव अस्तित्व में होता है
“शब्दों में संदेह है। अनुभव में बस अस्तित्व है।”
जैसे ही हम किसी चीज़ को परिभाषित करने की कोशिश करते हैं, संदेह आ जाता है।
- प्रेम—जैसे ही तुम कहते हो “मैं तुमसे प्रेम करता हूँ,” क्या प्रेम बढ़ जाता है या कम हो जाता है?
- खुशी—अगर तुम पूछो, “क्या मैं खुश हूँ?” तो क्या तुम वाकई खुश हो?
- सत्य—अगर कुछ सच है, तो उसे साबित करने की ज़रूरत क्यों है?
सच्चा अनुभव शब्दों का मोहताज नहीं होता। वह बस होता है।
उदाहरण:
एक व्यक्ति पहाड़ की चोटी पर बैठा हुआ है, सूरज डूबते हुए देख रहा है। कोई विचार नहीं, कोई शब्द नहीं, बस होना।
क्या उस पल में कोई संदेह है? या फिर वह सिर्फ़ शुद्ध अस्तित्व है?
जितना हम समझाने की कोशिश करते हैं, उतना ही हम सच्चाई से दूर हो जाते हैं।
6. संघर्ष का कारण: क्यों हम तकलीफ में रहते हैं
“किसी चीज़ का विरोध करने में ऊर्जा लगती है। रास्ता कम प्रयास में है।”
सोचो एक नदी। वह विरोध नहीं करती। वह बस बहती है, जहाँ ज़मीन उसे जाने देती है।
अब सोचो इंसानी दिमाग़। यह हमेशा विरोध करता है।
- हम भावनाओं से लड़ते हैं, बजाय उन्हें महसूस करने के।
- हम बदलाव से डरते हैं, बजाय उसे अपनाने के।
- हम जीवन से जूझते हैं, बजाय इसके साथ बहने के।
लेकिन विरोध करने में ऊर्जा लगती है। और जितना हम विरोध करते हैं, उतनी ही तकलीफ़ होती है।
उदाहरण:
अगर तुम एक रस्सी को कसकर पकड़ोगे, तो तुम्हारे हाथ दुखने लगेंगे। अगर तुम छोड़ दोगे, तो दर्द ख़त्म हो जाएगा।
जीवन भी ऐसा ही है। जितना पकड़ोगे, उतनी तकलीफ़ होगी।
7. भ्रम को स्वीकार करो, प्रवाह में बहो
माया कोई दुश्मन नहीं है, जिसे हराना है। यह कुछ ऐसा है, जिसे देखना है।
नाटक के भीतर नाटक। भूमिका के भीतर भूमिका। शब्द जो सबकुछ कहते हैं और कुछ भी नहीं कहते।
इसका विरोध मत करो, इसके साथ बहो।
- देखो, लेकिन पकड़ो मत।
- बोलो, लेकिन शब्दों से चिपको मत।
- सुनो, लेकिन समझने की कोशिश मत करो—बस अनुभव करो।
क्योंकि अंत में, यह मायने नहीं रखता कि हम समझ पाए या नहीं।
मायने सिर्फ़ यह रखता है कि हमने महसूस किया, हमने जिया, और हम अस्तित्व के इस नृत्य में पूरी तरह उपस्थित थे।