मोह को समझना: स्वामित्व का भ्रम और छोड़ने का डर

लेखक: अभय सिंह (IIT बाबा)

मोह क्या है? पहली नज़र में, यह सीधा लगता है—हमारा लोगों, चीज़ों या विचारों से जुड़ाव। लेकिन गहराई से देखें, तो मोह सिर्फ़ एक भावनात्मक बंधन नहीं, बल्कि एक जाल है, जो हम अनजाने में अपने चारों ओर बुन लेते हैं।

हम मोह इसलिए रखते हैं क्योंकि हमें आराम चाहिए। हम दोहराते हैं क्योंकि दोहराव हमें सुरक्षित लगता है। हम चीज़ों को अपना मानते हैं क्योंकि इससे हमें नियंत्रण का अहसास होता है। लेकिन हकीकत में, मोह एक पिंजरा है—एक ऐसी सीमा जो हमें जीवन को वैसे अनुभव करने से रोकती है जैसा वह वास्तव में है।

इस लेख में, मैं मोह के स्वभाव को समझाने की कोशिश करूँगा—कैसे यह हमारी पहचान बनाता है, और कैसे इसे छोड़कर ही सच्ची आज़ादी पाई जा सकती है।


1. दोहराव का आराम: मोह की शुरुआत कैसे होती है?

“दोहराव में जो आराम मिलता है, वही मोह है। दोहराव ही स्वामित्व की भावना को जन्म देता है। स्वामित्व ही मोह है।”

हम वही चीज़ें बार-बार करना पसंद करते हैं क्योंकि वे हमें परिचित लगती हैं। वही दिनचर्या, वही लोग, वही विचार। यह दोहराव हमें यह अहसास दिलाता है कि—“यह मेरा है, यह मैं हूँ, यही मेरी सच्चाई है।”

लेकिन क्या यह सच में हमारी सच्चाई है?

जब हम किसी चीज़ से मोह रखते हैं—चाहे वह कोई वस्तु हो, कोई व्यक्ति हो, या कोई विचार—हम अनजाने में उसे अपनी पहचान का हिस्सा बना लेते हैं। और ऐसा करते हुए, हम सिर्फ़ यह तय नहीं कर रहे कि हमारे पास क्या है, बल्कि यह भी तय कर रहे हैं कि हम कौन हैं।

उदाहरण:

सोचिए कि कोई व्यक्ति हमेशा एक ही कैफ़े में, एक ही कुर्सी पर बैठता है। अगर कोई और उस कुर्सी पर बैठ जाए, तो उसे असहजता महसूस होती है। क्यों? यह तो सिर्फ़ एक कुर्सी है। लेकिन लगातार बैठने से उस व्यक्ति ने अपनी उपस्थिति को उस स्थान से जोड़ लिया है।

मोह वस्तु से नहीं होता। यह उस भ्रम से होता है कि कोई बाहरी चीज़ हमारी पहचान को परिभाषित कर सकती है।


2. मोह के दो बड़े भ्रम

“मोह दो बड़ी ग़लतफ़हमियों से पैदा होता है—एक यह मानना कि हमारी सीमाएँ तय हैं, और दूसरा यह सोचना कि हम जो ‘नहीं हैं’, उसे भी अपना बना सकते हैं।”

मोह इन दो ग़लतफ़हमियों से आता है:

  1. “मैं कौन हूँ?” इसकी एक स्थायी सीमा बना लेना।
  2. “जो मेरा नहीं है, उसे भी मैं अपना बना सकता हूँ।”

पहली सोच एक सीमा है। दूसरी एक भ्रम।

हम यह मानते हैं कि हम बाकी दुनिया से अलग हैं, कि हमारी पहचान निश्चित और स्थायी है। लेकिन सच यह है कि सबकुछ आपस में जुड़ा हुआ है। जब हम अपने चारों ओर एक दीवार खींचते हैं—“यह मैं हूँ, और यह मैं नहीं हूँ”—तभी हम अपने अंदर बाहर का भेद पैदा करते हैं। और एक बार यह भेद बन गया, तो हम चीज़ों को इस सीमा के अंदर खींचने की कोशिश करने लगते हैं।

यही मोह की शुरुआत होती है—कुछ हासिल करने की कोशिश, जो पहले से ही अलग नहीं था।

उदाहरण:

एक माता-पिता जो अपने बच्चे के भविष्य को नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं। वे सोचते हैं—“यह बच्चा मेरा है। इसकी सफलता मेरी सफलता है, इसकी असफलता मेरी असफलता है।” लेकिन क्या यह सच है?

बच्चा एक स्वतंत्र अस्तित्व है। माता-पिता का मोह उसे बाँधने की कोशिश करता है, लेकिन यह प्रेम नहीं, नियंत्रण खोने का डर है।

सच्चा प्रेम बाँधने में नहीं, सीमाएँ मिटाने में है।


3. मोह बनाम प्रेम: सुरक्षा का भ्रम

“मोह कभी प्रेम नहीं हो सकता। प्रेम स्वतंत्रता में है, जबकि मोह बंधन में।”

मोह अपने आपको प्रेम की तरह दिखाने की कोशिश करता है—जैसे कि यह देखभाल, सुरक्षा या स्नेह हो। लेकिन असल में, मोह डर है, प्रेम नहीं।

प्रेम किसी चीज़ को वैसा ही स्वीकार करता है, जैसा वह है। मोह पकड़ कर रखने की कोशिश करता है, उसे अपने अनुसार बदलना चाहता है।

उदाहरण:

एक पक्षी को पिंजरे में बंद करके कोई कहे—“मैं इसे इसलिए रखता हूँ क्योंकि मैं इसे प्यार करता हूँ। मैं इसकी रक्षा कर रहा हूँ।”

लेकिन सच्चाई यह है कि वह खुद को सुरक्षित रख रहा है—उस भय से कि कहीं यह पक्षी उड़ न जाए।

जो प्रेम बाँधता है, वह प्रेम नहीं, स्वामित्व है।


4. निर्भरता बनाम सह-अस्तित्व: अंतर को समझना

“मोह निर्भरता है। निर्भरता और सह-अस्तित्व अलग चीज़ें हैं।”

किसी पर निर्भर होने और किसी के साथ जीने में अंतर है।

  • निर्भरता तब होती है जब एक के बिना दूसरा रह नहीं सकता।
  • सह-अस्तित्व तब होता है जब दोनों एक-दूसरे के कारण होते हैं, पर अलग-अलग भी मौजूद रहते हैं।

निर्भरता एकतरफ़ा होती है। सह-अस्तित्व परस्पर होता है।

उदाहरण:

सूरज और चाँद एक-दूसरे पर निर्भर नहीं हैं, लेकिन वे एक साथ संतुलन में रहते हैं। चाँद सूरज की रोशनी को प्रतिबिंबित करता है, और सूरज दिन और रात के चक्र को बनाए रखता है।

कोई एक दूसरे को नियंत्रित नहीं करता। वे बस होते हैं


5. स्वामित्व का जाल: जितना ज़्यादा पास रखते हो, उतना ज़्यादा डरते हो

“इंसान अकेलापन भरने के लिए चीज़ों को इकट्ठा करता है। लेकिन जितना ज़्यादा इकट्ठा करता है, उतना ज़्यादा खोने का डर बढ़ता है।”

स्वामित्व सुरक्षा नहीं देता। यह खोने के डर को बढ़ा देता है।

  • जितनी ज़्यादा चीज़ें जमा करोगे, उतना ही उनका चला जाना डराएगा।
  • जितने ज़्यादा रिश्तों को बाँधोगे, उतना ही उन्हें खोने का डर रहेगा।

उदाहरण:

एक करोड़पति जिसके पास बहुत संपत्ति है, लेकिन वह चैन से नहीं सो सकता, क्योंकि उसे अपनी संपत्ति खोने का डर है।

जो हमारे पास होता है, वही हमें बाँधता है।


6. अंतिम मोह: “मैं” की पहचान से चिपके रहना

“सबसे गहरा मोह हमारा अपने इंसान होने के रूप से है। यही हमें अनंत से अलग करता है।”

हमारा सबसे बड़ा मोह खुद से है—सिर्फ़ हमारे विचारों, भावनाओं या पहचान से नहीं, बल्कि हमारे रूप से भी। हम खुद को “मैं” मानते हैं, एक अलग अस्तित्व।

लेकिन यही सबसे बड़ा भ्रम है।

उदाहरण:

पानी को देखिए। वह जिस भी बर्तन में डाला जाए, उसका आकार ले लेता है। लेकिन वह बर्तन से बंधा नहीं होता।

हम भी पानी की तरह हैं। केवल हमारा मोह हमें किसी पहचान से चिपकाए रखता है।


7. अंतिम समझ: मोह को छोड़कर मुक्त होना

“सच जानने के लिए सोच से आगे बढ़ना पड़ता है।”

हम हमेशा चीज़ों को परिभाषित करने की कोशिश करते हैं, लेकिन सच्चाई परिभाषाओं में नहीं, अनुभव में होती है।

उदाहरण:

एक सूर्यास्त को देखते हुए, अगर हम उसे शब्दों में बाँधने की कोशिश करें, तो हम उसकी सुंदरता खो देंगे।

उसी तरह, अगर हम जीवन को समझने की कोशिश करना छोड़ दें और बस उसे जीएँ, तो हम सच में मुक्त हो जाएँगे।


निष्कर्ष: मोह से बाहर निकलना

मोह सिर्फ़ स्वामित्व का भ्रम है। यह ग़लतफहमी कि कोई बाहरी चीज़ हमें पूरा कर सकती है।

लेकिन सच्चाई यह है—
तुम पहले से ही मुक्त हो। बस पकड़ छोड़नी होगी।

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